Tuesday, 16 November 2021

चेतना और विज्ञान

पञ्चकोष, सप्तलोक और अवस्थात्रयी

---------------------©--------------------

प्रारंभ विवेकचूडामणि ग्रन्थ के तीन श्लोकों से :

अस्ति कश्चित्स्वयं नित्यमहंप्रत्यलम्बनम् ।

अवस्थात्रयसाक्षी सन् पञ्चकोषविलक्षणः ।।१२५।।

यह श्लोक हममें विद्यमान अहं-प्रत्यय (I-sense) के उस नित्य अधिष्ठान की ओर संकेत करता है, जो कि सुषुप्ति, जागृत, एवं स्वप्न, इन तीनों अवस्थाओं का साक्षी और चेतना के पाँचों कोषों से विलक्षण प्रकार का है ।

अकर्ताहमभोक्ताहमविकारोऽहमक्रियः ।

शुद्धबोधस्वरूपोऽहं केवलोऽहं सदाशिवः ।।४९०।।

इस श्लोक में पुनः उसी अधिष्ठान के तत्व के उन विशिष्ट लक्षणों की ओर संकेत किया गया है, जो बुद्धिग्राह्य होने के साथ साथ उस अधिष्ठान की वास्तविकता को शब्दों से व्यक्त करते हैं। 

अर्थात् वह अधिष्ठान जिसका नाम 'अहम्' है, अकर्ता, अभोक्ता, अविकारशील या अविकारी एवं अक्रिय है, वह शुद्ध, एवं भान-मात्र की तरह बोध-स्वरूप है । वह केवल एकमेव-अद्वितीय है, (इसलिए भी उसको उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष या अन्य पुरुष एकवचन सर्वनाम - 'मैं', 'तुम' और 'यह' / 'वह' या बहुवचन सर्वनाम - 'हम', 'आप', 'ये' अथवा 'वे' आदि से इंगित नहीं किया जा सकता। उसे एकवचन या बहुवचन सर्वनाम 'सर्व' या 'सब' की तरह से भी व्यक्त नहीं किया जा सकता। अभिव्यक्ति द्वैत है, जबकि वास्तविकता (Reality) द्वैत से रहित। 

क्योंकि ब्रह्म / सत् तथा चित् किसी भी स्वगत, सजातीय और विजातीय भेद से रहित है।

फिर भी, द्वैत के अभाव में व्यवहार का प्रश्न ही उत्पन्न न होने से वास्तविकता (Reality) के परिप्रेक्ष्य में द्वैत का सहारा लेने का औचित्य अपरिहार्यतः आवश्यक है। 

वास्तविकता को द्वैत के संदर्भ में समझने के लिए वास्तविकता (Reality) के दो वर्षों / संकेतकों / pointers / marks का उपयोग किया जा सकता है। वे दोनों संकेतक क्रमशः 'निजता' / being / individuality, और 'जानना' / im-mediate  knowing हैं। 'निजता' है अस्तित्व, और 'जानना' है 'चेतना'। इन्हें ही क्रमशः सत् और चित् भी कहा जाता है। इसे द्वैतपरक  ज्ञान से नहीं ग्रहण किया जा सकता इसलिए इस अपरोक्ष सत्य से अवगत होने को अपरोक्षानुभूति / Direct Realization कहा जाता है। इस प्रकार के ज्ञान में ज्ञाता-ज्ञात-ज्ञान का वैसा भेद नहीं होता, जैसा कि समस्त द्वैत-परक ज्ञान में अवश्य ही होता है।

'निजता' के इस कालरहित (Timeless) सत्य का अभाव नहीं है और काल (Time) की अवधारणा का उदय 'निजता' के ही अधिष्ठान (sub-stratum) से होता है। 

यह 'निजता' पुनः उपरोक्त वर्णित तीनों भेदों से रहित होने से सत्य का सीधा साक्षात्कार है। यही आत्मा, परमात्मा, अस्तित्व और चेतना भी है। किन्तु उससे अवगत होने के लिए उसके उन लक्षणों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है, जिन्हें बुद्धि से भी ग्रहण किया जा सकता है। जिन्हें अपने होने की सहज स्फुर्णा से भी ग्रहण किया जा सकता है। जिन्हें अपने इसमें विद्यमान जानने के स्वरूपगत सत्य अर्थात् 'चेतना' के रूप में भी ग्रहण किया जा सकता है। उस से अवगत होने और इस माध्यम के प्रयोग के लिए क्रमशः गणपति-अथर्वशीर्ष, शिव-अथर्वशीर्ष, और देवी-अथर्वशीर्ष का अध्ययन अर्थात् पाठ, पठन-पाठन आदि किया जा सकता है। गणपति, शिव तथा देवी उसी सत्य के संकेतक हैं। 

द्रष्टुः श्रोतुर्वक्तुः कर्तुर्भोक्तुर्विभिन्न एवाहम् ।

नित्यनिरन्तरनिष्क्रियनिःसीमासङ्गपूर्णबोधात्मा ।।४९१।।

('अहम्' अर्थात् 'निजता' इस प्रकार से द्वैतरहित होने से और दृष्टा-दृश्य के भेद से रहित होने से) वास्तविकता, न तो द्रष्टा है, न श्रोता, न ही वक्ता है, न ही कर्ता, अथवा भोक्ता, बल्कि उन सब उपाधियों से रहित, उनसे विलक्षण तत्व है।

वास्तविकता नित्य, सतत, सनातन, निष्क्रिय, निःसीम, असङ्ग, पूर्ण, बोध / भान-मात्र सत्य अर्थात् आत्मा ही है। संस्कृत भाषा में स्वयं का उल्लेख करने के लिए 'आत्मा' पद / शब्द का प्रयोग किया जाता है इसलिए 'आत्मा', 'निजता' का ही समानार्थी है।

जब इसे किसी वस्तु से संबद्ध कर लिया जाता है तो वह व्यक्ति की तरह माना जाता है।

इसलिए विज्ञान के अर्थ में अपनी 'निजता' का शब्दरहित ज्ञान अध्यात्म का विज्ञान है।

दूसरी ओर वह विज्ञान जिसे  science  कहा जाता है, संस्कृत धातुओं 'संश्' और 'शंस' से उत्पन्न अपभ्रंश है ।

'संश्' संशय (doubt) का द्योतक है, जबकि 'शंस्' शङ्का  अर्थात् आशंका (suspect) का ।

Conscious Science  का अर्थ होगा :

अवधान (attention / awareness),  सावधान होना। 

Doubt द्वैत का ही अपभ्रंश / सजात / सज्ञात / cognate है, जबकि suspect, स-स्पष्ट / स-स्पृष्ट का।

Phonetic resemblance से भी यह समझना आसान है। 

***




No comments:

Post a Comment