Tuesday, 24 January 2023

भाग्यं फलति सर्वत्र

न च विद्या न पौरुषम्।। 

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ठीक 20 वर्ष हुए जब मैं उस व्यक्ति से पहली बार मिला था। वह बहुत सक्रिय (dynamic) था, और भाग्य जैसे हर किसी के साथ खेलता रहता है, उसके साथ भी खेलता रहा है।

भाग्य अर्थात् अदृष्टपूर्व। प्रत्यक्ष अनुमान और आगम इन तीनों ही उपायों से उसे देखा या जाना नहीं जा सकता। वह कहानी याद आ रही है, जिसमें एक गरीब मनुष्य का भाग्य उससे खेल रहा होता है, और सोचता है कि उसकी सहायता कैसे कर दूँ । जब वह एक पुल से गुज़रनेवाला होता है, तो उससे दो मिनट पहले ही वह किसी दूसरे आदमी को उस पुल से जाने के लिए प्रेरित करता है। उस दूसरे आदमी की जेब में एक थैली में बहुत रुपये होते हैं, जो कि उस पुल पर गिर जाते हैं। उसके पीछे एक मिनट बाद ही गरीब व्यक्ति उस पुल पर आता है, जिससे चन्द कदम ही दूर रास्ते पर वह थैली पड़ी होती है। गरीब आदमी यह सोचने लगता है कि अगर मैं कभी अन्धा हो गया, तो सड़क पर कैसे चलूँगा! यह सोचकर वह आँखें बन्द कर लेता है और कुछ कदम चलकर देखता है और इसलिए उस थैली पर उसकी नजर ही नहीं जाती। तब तक उस दूसरे आदमी को पता चल जाता है कि उसकी थैली शायद रास्ते पर कहीं गिर गई है, वह तुरंत उसे ढूँढने के लिए पुल पर पीछे की ओर लौट जाता है, जहाँ पुल पर पड़ी उसकी थैली उसे दिखाई देती है। वह भगवान को धन्यवाद देकर उस थैली को उठाकर ठीक से जेब में रख लेता है। 

वर्ष 2019 का आगमन हुआ और सारी दुनिया में बहुत से लोग अपनी जगह अटक गए और बहुत से दूसरे सैकड़ों मील पैदल  चलकर अपने घर या गाँव पहुँच गए। कुछ बेचारे कहीं और ही, जहाँ जाने की उन्होंने कभी स्वप्न में भी कल्पना तक न की थी।

ज्योतिष के नौ ग्रहों में दो ग्रह राहु और केतु भाग्य की ही तरह अदृष्ट हैं। राहु बेचारा कितना भी सोच-विचार कर ले, कहीं आ या जा नहीं सकता जबकि केतु कितना भी भटकते रहे, सोचना उसके लिए संभव ही नहीं होता। वैसे ये दोनों ग्रह एक ही राक्षस के सिर और धड़ हैं, ऐसा कहा जाता है। और ऐसा भी वर्णन है कि जरा नामक राक्षसी के एक पुत्र का जन्म सिर और धड़ इन दो टुकड़ों में मृतक के रूप में हुआ था और उसने उन्हें जोड़कर जीवित कर दिया और उसे वरदान दिया था कि जब तक दोनों टुकड़े अलग न हो जाएँगे तब तक उसकी मृत्यु नहीं होगी। यह मगध का राजा था, इसकी मृत्यु तब तक नहीं हुई जब तक कि भगवान् श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से इसके सिर को काटकर धड़ से अलग नहीं कर दिया।

तो भाग्य के कार्य करने का यही तरीका है। 2019 से अब तक मैं भी इसी भाग्य के फल से एक स्थान पर फँसकर रह गया हूँ और भाग्य से अब जब वह व्यक्ति 20 साल बाद पुनः मिला तो देखता हूँ कि वह चाहकर भी किसी एक जगह शान्तिपूर्वक नहीं टिक पा रहा है।

जरासंध और श्रीकृष्ण से श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक याद आए।

श्रीमद्भगवद्गीता के ये दो श्लोक शायद हर किसी ने पढ़े या सुने तो होंगे ही --

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। 

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

दूसरा इससे भी अधिक प्रसिद्ध दूसरा श्लोक इस प्रकार से है :

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।

फिर :

"विनाशकाले विपरीतबुद्धिः"

यह भी इतना ही प्रसिद्ध है।

मनुष्य भाग्य को बदलना और जानना भी चाहता है। इससे यही लगता है कि वह भाग्य को जानता ही नहीं । और अगर जानता ही नहीं तो उसे बदलने का विचार क्या हास्यास्पद ही नहीं है! 

कोई भी मनुष्य कितना भी बुद्धिमान क्यों न हो, कार्य-कारण और कर्तृत्व बुद्धि पर उसका विश्वास अटूट होता है। जीवन में वह धन, यश, सफलता और भोग प्राप्त करने के लिए लालायित रहता है। किन्तु उसका ध्यान भूले से भी कभी इस प्रश्न पर नहीं जाता है कि क्या इन सबको प्राप्त कर लेने पर वह सुखी होगा? और सुखी होने पर क्या दूसरी अनेक चिन्ताओं और समस्याओं से उसे छुटकारा मिल जाएगा! तब भी क्या फिर वह शान्ति ही प्राप्त करने का इच्छुक नहीं होगा? किन्तु जब तक भाग्य उसे भटकाता रहता है, शान्तिपूर्वक रह पाना बहुत मुश्किल है।

बीस साल पहले उस व्यक्ति के प्रति मेरी जो सहानुभूति थी वह आज भी वह वैसी ही है, किन्तु क्या मैं उसके भाग्य को बदल सकता हूँ! मैं तो अपने ही भाग्य को भी कहाँ बदल सकता हूँ! और मैं अपने भाग्य को जानता ही कहाँ हूँ, तो उसे बदल पाने के बारे में कुछ सोच पाना भी मेरे लिए कैसे मुमकिन है! तो फिर उसके या और किसी के भाग्य के बारे में कुछ कहने का सवाल ही कहाँ उठता है!

चलते चलते -- 

"तदात्मानं सृजाम्यहम् / तदा आत्मानं सृजामि अहं।"

में 'आत्मानं' और  'अहं' पद का प्रयोग लक्ष्यार्थ और वाच्यार्थ दोनों ही अर्थों में एक साथ हुआ है, इसलिए यह केवल भगवान् श्रीकृष्ण के ही नहीं प्रत्येक ही मनुष्य के संबंध में भी पूरी तरह से सुसंगत है। 

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Monday, 16 January 2023

प्रेयस् और श्रेयस्

Prayer and Urge. 

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Though the two words may look synonyms, if we relate their Sanskrit equivalents, we can see better :

A Prayer is saying a wish in words before a God "Pray" is cognate सजात / सज्ञात of the verb-root √प्रार्थ् > प्रार्थ्यते -- प्र अर्थ्य् - to express a desire / wish. It is essentially in words, be it mantra or a language.  A mantra is may be again a  sound-equivalent of the sense like ॐ, ह्रीम्, ऐं,  and the likes बीजाक्षर or a compound word of combination of letters that may not have a meaning or seem to have in any language.  Like : नमः शिवाय / ॐ नमः शिवाय . 

An urge which is cognate सजात / अपभ्रंश of two different verb-roots ऊर्ज् > ऊर्जयति / ऊर्ज्यते -- tob give strength / energy / power. The word "erg" unit of energy consumed or equivalent to work done -- is a direct derivative of  verb - root ऊर्ज् 

Again, the word 'urge' (used in the sense of a request in order to beseech a favour) comes from the Sanskrit verb-root 'अर्च्' having the sense of expressing the gratitude / devotion / love. The same word ' अर्च > अर्चति (to worship) took the form 'अर्ज़'; having the same sense, in the Urdu and possibly in the Arabic and the Persian also.

Yet there is another form of this धातु / Verb-root अर्च् as in अर्ज् / अर्ह्  which mean to earn and to deserve respectively.

"Urge" in English also denotes the longing, the deep essential earnest need, at the core of the heart of all and everyone, without fulfilling which there is no meaning and sense any, in life and living.

Therefore we could conclude that Sanskrit has two forms :

One is as a spoken / written language with a grammar and,

Another as the study of the genesis and the structure of any language what-so-ever.

Another form of the Sanskrit संस्कृत language as the spoken and written too is the Prakrit / प्राकृत which has its own grammar originated from the rules governing the conventions prevalent in the different and varied human groups, cultures and societies all over the globe. In comparison, the grammar व्याकरण of Sanskrit that was discovered by the ऋषि like  Panini (पाणिनी) and other sages was the result of the exploration into the nature of sound itself. The word sound (स्वन् / स्वं) conveys the sense "self" and "consciousness" / being also. And at the same time, "स्वं" / "स्वर" is also प्राण in it. This is what is  देवता / devata aspect of the Veda. So there are 33 core देवता / Devata who are conscious presiding deities of the different realms of existence / the universe. This forms the matrix of letters / phonemes in their respective phase. The word matrix too is cognate of the Sanskrit word  मातृका, which is also the "mother-principle" that is supposed to give birth to the universe and all that is there-in. In conclusion :

When you pray, you may worship, express your gratitude to the Lord of your conviction or you may simply remember Him / Her as The Supreme Reality is all in all, that could be addressed as a Father, a Mother, and even as a brother or sister, son or daughter, or in any form or even with no form any. 

This Divinity is also named ब्रह्मन् / Brahman, the Beginningless and the Endless Cause less cause of whatever that is always here and now, irrespective of time and place as is in our assumption.

In contrast and comparison to प्रेयस्, श्रेयस् is also one of the many names of the Reality, -  the ईशिता / ईश्वर, ब्रह्मन् / Brahman Who alone without a second governs the universe and all those things and beings in it.

So there is a Prayer as शान्ति-पाठ that is just an expression for the auspicious well-being for all :

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखमाप्नुयात्।।

मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्।।

May all be happy, all free from disease, May all see auspicious, May no one grieve. 

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Saturday, 14 January 2023

Corrections

Patanjal Yoga Sutra 1:29

समाधिपाद : २९

ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्न्तरायाभावश्च।।२९।।

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पातञ्जल योगसूत्राणि

।। तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ।।

-साधनपाद १,

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Sunday, 8 January 2023

Dharma and History of Religions.

How And Why We Drifted Away! 

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Please treat this one as the last part of the earlier post.




Saturday, 7 January 2023