न च विद्या न पौरुषम्।।
--------------©--------------
ठीक 20 वर्ष हुए जब मैं उस व्यक्ति से पहली बार मिला था। वह बहुत सक्रिय (dynamic) था, और भाग्य जैसे हर किसी के साथ खेलता रहता है, उसके साथ भी खेलता रहा है।
भाग्य अर्थात् अदृष्टपूर्व। प्रत्यक्ष अनुमान और आगम इन तीनों ही उपायों से उसे देखा या जाना नहीं जा सकता। वह कहानी याद आ रही है, जिसमें एक गरीब मनुष्य का भाग्य उससे खेल रहा होता है, और सोचता है कि उसकी सहायता कैसे कर दूँ । जब वह एक पुल से गुज़रनेवाला होता है, तो उससे दो मिनट पहले ही वह किसी दूसरे आदमी को उस पुल से जाने के लिए प्रेरित करता है। उस दूसरे आदमी की जेब में एक थैली में बहुत रुपये होते हैं, जो कि उस पुल पर गिर जाते हैं। उसके पीछे एक मिनट बाद ही गरीब व्यक्ति उस पुल पर आता है, जिससे चन्द कदम ही दूर रास्ते पर वह थैली पड़ी होती है। गरीब आदमी यह सोचने लगता है कि अगर मैं कभी अन्धा हो गया, तो सड़क पर कैसे चलूँगा! यह सोचकर वह आँखें बन्द कर लेता है और कुछ कदम चलकर देखता है और इसलिए उस थैली पर उसकी नजर ही नहीं जाती। तब तक उस दूसरे आदमी को पता चल जाता है कि उसकी थैली शायद रास्ते पर कहीं गिर गई है, वह तुरंत उसे ढूँढने के लिए पुल पर पीछे की ओर लौट जाता है, जहाँ पुल पर पड़ी उसकी थैली उसे दिखाई देती है। वह भगवान को धन्यवाद देकर उस थैली को उठाकर ठीक से जेब में रख लेता है।
वर्ष 2019 का आगमन हुआ और सारी दुनिया में बहुत से लोग अपनी जगह अटक गए और बहुत से दूसरे सैकड़ों मील पैदल चलकर अपने घर या गाँव पहुँच गए। कुछ बेचारे कहीं और ही, जहाँ जाने की उन्होंने कभी स्वप्न में भी कल्पना तक न की थी।
ज्योतिष के नौ ग्रहों में दो ग्रह राहु और केतु भाग्य की ही तरह अदृष्ट हैं। राहु बेचारा कितना भी सोच-विचार कर ले, कहीं आ या जा नहीं सकता जबकि केतु कितना भी भटकते रहे, सोचना उसके लिए संभव ही नहीं होता। वैसे ये दोनों ग्रह एक ही राक्षस के सिर और धड़ हैं, ऐसा कहा जाता है। और ऐसा भी वर्णन है कि जरा नामक राक्षसी के एक पुत्र का जन्म सिर और धड़ इन दो टुकड़ों में मृतक के रूप में हुआ था और उसने उन्हें जोड़कर जीवित कर दिया और उसे वरदान दिया था कि जब तक दोनों टुकड़े अलग न हो जाएँगे तब तक उसकी मृत्यु नहीं होगी। यह मगध का राजा था, इसकी मृत्यु तब तक नहीं हुई जब तक कि भगवान् श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से इसके सिर को काटकर धड़ से अलग नहीं कर दिया।
तो भाग्य के कार्य करने का यही तरीका है। 2019 से अब तक मैं भी इसी भाग्य के फल से एक स्थान पर फँसकर रह गया हूँ और भाग्य से अब जब वह व्यक्ति 20 साल बाद पुनः मिला तो देखता हूँ कि वह चाहकर भी किसी एक जगह शान्तिपूर्वक नहीं टिक पा रहा है।
जरासंध और श्रीकृष्ण से श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक याद आए।
श्रीमद्भगवद्गीता के ये दो श्लोक शायद हर किसी ने पढ़े या सुने तो होंगे ही --
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
दूसरा इससे भी अधिक प्रसिद्ध दूसरा श्लोक इस प्रकार से है :
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।
फिर :
"विनाशकाले विपरीतबुद्धिः"
यह भी इतना ही प्रसिद्ध है।
मनुष्य भाग्य को बदलना और जानना भी चाहता है। इससे यही लगता है कि वह भाग्य को जानता ही नहीं । और अगर जानता ही नहीं तो उसे बदलने का विचार क्या हास्यास्पद ही नहीं है!
कोई भी मनुष्य कितना भी बुद्धिमान क्यों न हो, कार्य-कारण और कर्तृत्व बुद्धि पर उसका विश्वास अटूट होता है। जीवन में वह धन, यश, सफलता और भोग प्राप्त करने के लिए लालायित रहता है। किन्तु उसका ध्यान भूले से भी कभी इस प्रश्न पर नहीं जाता है कि क्या इन सबको प्राप्त कर लेने पर वह सुखी होगा? और सुखी होने पर क्या दूसरी अनेक चिन्ताओं और समस्याओं से उसे छुटकारा मिल जाएगा! तब भी क्या फिर वह शान्ति ही प्राप्त करने का इच्छुक नहीं होगा? किन्तु जब तक भाग्य उसे भटकाता रहता है, शान्तिपूर्वक रह पाना बहुत मुश्किल है।
बीस साल पहले उस व्यक्ति के प्रति मेरी जो सहानुभूति थी वह आज भी वह वैसी ही है, किन्तु क्या मैं उसके भाग्य को बदल सकता हूँ! मैं तो अपने ही भाग्य को भी कहाँ बदल सकता हूँ! और मैं अपने भाग्य को जानता ही कहाँ हूँ, तो उसे बदल पाने के बारे में कुछ सोच पाना भी मेरे लिए कैसे मुमकिन है! तो फिर उसके या और किसी के भाग्य के बारे में कुछ कहने का सवाल ही कहाँ उठता है!
चलते चलते --
"तदात्मानं सृजाम्यहम् / तदा आत्मानं सृजामि अहं।"
में 'आत्मानं' और 'अहं' पद का प्रयोग लक्ष्यार्थ और वाच्यार्थ दोनों ही अर्थों में एक साथ हुआ है, इसलिए यह केवल भगवान् श्रीकृष्ण के ही नहीं प्रत्येक ही मनुष्य के संबंध में भी पूरी तरह से सुसंगत है।
***